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अपने ही लोगों से उपेक्षित है हिन्दी

4भारत की आजादी के 67 वर्षों के बाद भी हम व्यवहारिक और औपनिवेशिकता से तो आजाद हो गए | पर हमारी मानसिकता पूरी तरह आजाद नहीं हो पाई | आज भी हम अपने हिन् देश में भाषा को प्रतिष्ठा के लिए आये दिन आन्दोलन को विवश हैं | शायद हमारी आजादी अधूरी है | किसी भी देश की अपनी पहचान उसका झंडा, भाषा, क्षेत्र और लोगों में देश के प्रतीकों के प्रति श्रधा नहीं होती वो देश पूर्ण आजाद नहीं होता | मानसिक स्वतंत्रता ही आजादी का गहना है जिसे बिना हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में पुर्णतः स्थापित और आत्मसात नहीं कर लिया जाता, आजादी अधूरी है |

आज भी अंग्रेजों के गुड मोर्निंग से सूर्योदय होता हो, गुड इवनिंग से सूर्यास्त | नींद के आगोश में सोया इन्सान जहाँ बुदबुदाता हो गुड नाईट – गुड नाईट | किसी के पैर पर पैर पड़ जाए तो सॉरी, गुस्सा आने पर नॉनसेंस, गेट आउट और इडियट जैसे उद्घघोष की ध्वनी मुखारबिंद की शोभा हो | संसद में विचार व्यक्त करने के लिए जहाँ धडडले से अंग्रेजी का प्रयोग हो रहा हो | आवेदन पात्र हिन्दी में हो पर अंग्रेजी में उस पर अपनी राय विचार लिखने की परम्परा कायम हो | अंग्रेजी बोलने वालों को तेज तर्रार, बुद्धिमान एवं प्रतिष्ठित समझने एवं हिन्दी बोलने-लिखने वालों को अनपढ़, गंवार जानने की परम्परा हावी हो | अंग्रेजी विद्यालय में बच्चों को शिक्षा के लिए भेजना शान – शौकत बन चूका हो, तो कैसे कोई कह सकता है, यह वही देश है जिस देश की 90 प्रतिशत जनता हिन्दी जानती समझती एवं बोलती है | जिस देश के राष्ट्रभाषा हिन्दी है | जिसे सिर्फ खानापूर्ति के लिए स्थापित कर मंदिर में स्थापित तो किया गया पर पूजा अर्चना से वंचित हो |

वर्तमान में हिन्दी की आज यही दशा है, जहाँ हिन्दी अपने ही लोगों से पग पग पर उपेक्षित हो रही है | ऐसी मानसिक दशा में क्या दिशा मिलेगा, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है | दोहरेपन की नीति के कारण आज तक स्वतंत्रता के 67 वर्ष के उपरांत भी इस देश को सही मायने में हम एक भाषा नहीं दे पाये, जिसमे पूरा देश संवाद कर सके | जिस भाषा को अंग्रेजों ने हमारे ऊपर थोपा, उस आज भी बड़े शौक से अपनी दिनचर्या में उतारे बैठे है | अंग्रेज तो इस देश से चले गए, पर अंग्रेजियत आज भी हमारे मष्तिष्क पर हावी है | जब भी हिन्दी दिवस आता है, हिन्दी पखवाडा, सप्ताह का आयोजन कर,हिन्दी पर लम्बे दुलम्बे वक्तव्य देकर, प्रतियोगिता आयोजित कर कुछ लोगों को हिन्दी के नाम पर सम्मान – इनाम देकर इतिश्री कर ली जाती है | हिन्दी पखवाडा, सप्ताह समाप्त होते ही हिन्दी वर्ष भर के लिए विदा हो जाती है |

बात यहीं तक सिमित नहीं है | सरकारी कार्यालय हो या निजी आवास, किसी अधिकारी का कार्यालय हो या घर, प्रायः हर जगह दीवारों पर चमचमाते अंग्रेजी के सुनहरे पर तथा गर्द खाते राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार में लगे टूटे-फूटे पुराने पर आज भी दिख जायेंगे | हिन्दी के प्रति दोहरेपन की जिन्दी के आभास आसानी से करा देते है | आज आम आदमी और आने वाली पीढी अपनी संस्कृति व सभ्यता से कोसों दूर होते जा रहा है | इस बदलते परिवेश में बाप-बेटे, गुरु-शिष्य के रिश्तों में अलगाव की बू आने लगी है | अनुशासन नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई है | आज यहाँ अंग्रेजी के दो चार शब्द बोल देना बुद्धिमता की पहचान बन गयी है | अंग्रेजी आती हो या नहीं, इसे कोई मतलब नहीं ! अंग्रेजी का अख़बार मांगना फैसन सा हो गया है | घर के सामने अंग्रेजी में ही सूचना एवं नाम की पट्टिका प्रायः देखि जा सकती है | इस तरह के दोहरेपन की स्थिति ने हिन्दी के विकास को लाचार बनाकर रख दिया है | तुष्टिकरण की नीति से कभी भी हिन्दी का विकास यहाँ संभव नहीं दिखाई देता | हिन्दी हमारी दोहरी मानसिकता का शिकार हो चुकी है | जिसके कारण यह रह्त्रिय स्वरुप को उजागर कर पाएंगे मुश्किल लगता है | हमारे देश में हिन्दी की वास्तविक स्थिति यही है | यही कारण है की हिनिद इस देश की आज तक राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई |

विश्व पटल पर अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुए विश्व के किसी भी देश ने अंग्रेजी को नहीं अपनाया | सिर्फ भारत ऐसा मुल्क है जिसकी अपनी भाषा होते हुए भी अब टिअक भाषाई गुलामी से नहीं उबार पाया ! जब भी विदेश दौरे पर भारतीय प्रतिनिधि द्वारा अपना संबोधन अंग्रेजी में सुने देता है सहसा आत्मा कचोटने लगता है, क्या भारत की अपनी कोई भाषा नहीं ? सभी भारतवासियों को वो दिन आज भी याद है, जब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई जी विश्व मंच पर अपना वक्तव्य हिन्दी में दिए थे | आज जब अपने ही घर में हिन्दी अपने ही लोगों द्वारा उपेक्षित होती है, स्वभिमान को कितना ठेस पहुँचता है | इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता | काश यह अनुमान देशवासियों को भी होता जो इस देश में जन्म लेकर विदेशी भाषा अंग्रेजी को अहमियत के साथ आत्मसात कर लेते है |

जहाँ जनसंचार माध्यमों प्रिंट दृश्य एवं श्रव्य की भूमिका हिन्दी प्रचार – प्रसार में सदा महत्वपूर्ण रही है \ प्रिंट मिडिया का इतिहास काफी पुराना रहा है | स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान हिन्दी भाषा में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं ने देश को आजाद करने की पृष्ठभूमि में मह्त्वफ्पूर्ण भूमिका निभाते हुए हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में अहम् योगदान दिया | यहाँ के लोक कवी एवं साहित्यकारों ने हिन्दी भाषा में अपनी रचनाएँ जन-जन तक पहुंचा कर हिन्दी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया | स्वाधीनता काल की प्रकाशित पत्र पत्रिकाओं के हिन्दी भाषा के कारण उसके सक्रिय योगदानों को नकारा नहीं जा सकता | आर्यावर्त, सन्मार्ग, आज, नवज्योति, हिंदुस्तान, विश्वामित्र, नवभारत एवं स्वतंत्र भारत जैसे अनेक चर्चित हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों ने हिन्दी के विकास में जो भूमिका निभाई है उसे भुलाया नहीं जा सकता | आज हिन्दी के विकास में देश के विभिन्न अंचलों से हजारों पत्र-पत्रिकाएं सक्रिय भूमिका निभा रही है | नवाचार, राजस्थान पत्रिका, पंजाब केसरी, दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान, जागरण, हरिभूमि, सहारा, जैसे अनेकों समाचार पत्र जहाँ लाखों पाठकों के घर-घर पहुँच रहे है | वहीँ आज तक, सहारा, जी न्यूज, ए बी पी, एक्सप्रेस मिडिया, मिडियाकेयर नेटवर्क जैसे इलेक्ट्रोनिक संसाधनों के माध्यम से हिन्दी आज देश में प्रकाशित चर्चित दुनिया, सवेरा, हमारे मुंबई, हिन्दी मिलाप, रांची एक्सप्रेस, लोकमत दैनिक समाचार पत्रों द्वारा पुरे देश में हिन्दी संवाद को स्थापित करने में सक्रिय भूमिका निभा रही है | आज हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों के साथ – साथ हजारों साप्ताहिक, पाक्षिक पत्र भी अपनी भूमिका हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अपनी भूमिका निभा रहे है | गली – गली, गाँव – गाँव को हिन्दी से जोड़ने का कार्य कर रहे हैं | हजारों पत्रिकाएं भी इस दिशा में अपना कार्य कर रहीं हैं | पर इन सबके वावजूद सैट समुन्दर पार की भाषा अंग्रेजी के मोहताज से हम अपने आपको अभी तक निकाल नहीं पाये है | जिसका प्रभाव हमारी आने वाली पीढ़ी पर पड़ रहा है | जहाँ विश्व स्तर पर हिन्दी का फैलाव बड़ी तेजी से हो रहा है | पर अपने ही घर में हिन्दी उपेक्षित जिन्दगी जीने को विवश है | स्वतंत्रता के 67 वर्षों के बाद आज भी कहीं न कहीं परतंत्रता का बोध स्वतः ही हो जाता है | हिन्दी की वर्तमान दशा – दिशा को राष्ट्रहित में अनुकूल बनाना बहूत जरूरी है | वर्ना आने वाली पीढ़ी से हमारी हिन्दी कहीं विलुप्त ना हो जाए |

किसी भी राष्ट्र के लिए उसकी राष्ट्रभाषा आत्मा होती है | पूरा राष्ट्र जिसमे संवाद करता हो जो राष्ट्र की पहचान हो | ऐसा तभी संभव है जब सभी भारतवासी दोहरी मानसिकता को छोड़कर राष्ट्रभाषा हिन्दी को अपने जीवन में अपनाने की शपथ अंतःकरण से लें | सही मायने में हिन्दी का राष्ट्रिय स्वरुप तभी उजागर हो सकेगा | राष्ट्रिय स्वरुप में हिन्दी के महत्व का वक्त आ चूका है | देश की एकता, अखंडता अस्मिता जो भाषा, क्षेत्र, सम्प्रदाय, वर्णों में विभाजित होता जा रहा है | उसे एक सूत्र में पिरोने और देश को जोड़े रखने के लिए मानवता में एक भाषा जिससे भारतीय को पहचान मिले हर व्यक्ति में समाहित करने का समय आ गया है |

हिन्दी सिर्फ भाषा नहीं भारतीयता का उद्गार है |

माँ के आँचल में मिला इस मिटटी से जुड़ा संस्कार है | |

जहाँ तक हिन्दी के प्रचार – प्रसार का प्रश्न है, इस दिशा में व्यक्तिगत और संगठित स्तर पर सक्रियता हाल के कुछ वर्षों में आई है | उसी कड़ी में एक नाम “भाषा सहोदरी” का भी है ! जिसके हिन्दी को सम्मान और प्रतिष्ठा दिलाने के प्रयासों को काफी सराहना मिल रही है | मासिक गोष्ठी, गद्ध पद के माध्यम से जाग्रति बैठकों में प्रगति और विचार, हिन्दी के लिए समर्पित श्रेष्टजनों बुद्धिजीवियों का साक्षात् तथा युवाओं को जोड़ना एक अद्वितीय प्रयास है | इस प्रयास के परिणाम भी आने लगे है | युवा लेखकों कविओं विचारक प्रचारक की सक्रियता सार्थक कदम है | जल्दी ही हिन्दी अपने भारतीय लोगों के आत्मा में बसेगी ऐसा भरोषा है |

                                                                                                                        – श्री विजय मिश्रा जी “बाबा“

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