जब किसी राष्ट्र पर एक विदेशी भाषा हावी होने लगती है तो उस राष्ट्र की संस्कृति के लिए बड़ा खतरा उपस्थित हो जाता है | संस्कृति क्या है ? हमारे पूर्वजों ने विचार और कर्म के क्षेत्र में जो कुछ भी श्रेष्ठ किया है, उसी धरोहर का नाम संस्कृति है | यह संस्कृति अपनी भाषा के जरीय जीवित रहती है | यदि भाषा नष्ट हो जय तो संस्कृति का कोई नामलेवा-पनिदेवा नहीं रहता संस्कृति ने जिन आदर्शों और मूल्यों को हजारों सैलून के अनुभवों के बाद निर्मित किया है, वे विस्मृति के गर्व में विलीन हो जाते है |
भाषा संस्कृति का अधिष्ठान है | संस्कृति भाषा पर टिकी हुई है |
मै तो इससे भी एक कदम आगे जाना चाहता हूँ | मै चाहता हूँ कि हमारे पूर्वजों ने जो कुछ बुरा किया है, वह भी हमारे सामने होना चाहिए | इसे आप चाहे विकृति कह लीजिये | इससे भी हम अपना भविष्य सुधर सकते हैं | यह भी भाषा की मोहताज है | अपनी संस्कृति और विकृति दोनों से परिचित होने के लिए अपनी भाषा की धरा निरंतर बहती रहनी चाहिए | अगर अपनी भाषा नहीं होगी तो हमें न तो अपनी अच्छाईयों का पता चलेगा और न ही बुराईयों का |
आज जो बच्चे अनिवार्य अंग्रेजी पढ़ रहे हैं कि वह उत्कृष्ट भाषा है, उनका ध्यान भारत की विरासत से हट रही है | वे शेक्सपियर पढेंगे, मिल्टन पढेंगे, शैली पढ़ेंगी, लेकिन कालिदास, बव्भूति, तुलसी दास, सूर, मीरा, कबीर और बिहारी अजनबी बन जाते है | वे मेरे ताकि मेरे और ग़ालिब जैसे दुनिया के महानतम शायरों की शायरी का रस नहीं ले सकेंगे | हो सकता है कान्वेंट की अंग्रेजी पुस्तकों में शकुंतला के बारे में या भारत के बारे में या कन्हैया की रासलीला के बारे में थोडा – बहूत पढ़ा दिया जाय |
लेकिन जब ये बच्चे बड़े होंगे तो ये अपनी प्यास बुझाने के ग्रंथों को मूल रूप से पढ़ना चाहेंगे, घटनाओं के बारे में विस्तार से जानना चाहेंगे | मगर जानेंगे कैसे ? ये सरे ग्रन्थ अंग्रीजी में तो नहीं लिखे गए हैं | तब क्या होगा ?
ये बच्चे बड़े होकर या तो अपने ही ग्रंथों के अंग्रेजी अनुवाद पढेंगे और राम को राम, कृष्ण को कृष्णा तथा कुंती को कुंटी कहेंगे या फिर इनका ध्यान पूरी तरह से अंग्रेजों की संस्कृति को पर्तिबिम्बित करनेवाले अंग्रेजी ग्रंथों की ओर चला जाएगा | शेक्सपियर के हेमलेट के हर वर्ष नए संस्करण किकलेंगे और वाणभट की कादंबरी को दीमक खाया करेंगी | हाब्स का लेवियाथन गरम पकोदो की तरह बिकेगा और कौटिल्य का अर्थशास्त्र बासी डबलरोटी की तरह सड़ता रहेगा |
मै हेलमेट या मेकबेथ पढने का विरोधी नहीं हूँ | मै तो चाहता हूँ कि आधुनिक भारत के नौजवान भंवरे – प्लेटो, अरस्तू, शेक्ष्पियर, दांते, हीगल, कामू, ताल्स्तॉय, येव्तुशेंको सभी का रस पिने लायक बने, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिय कि भाषा रेल की पटरी की तरह होती है | जिधर पटरी जाती है, रेल भी उधर ही जाती है | अगर पटरी नयी दिल्ली की तरफ जा रही है तो लाख कोशिश करने वावजूद रेल बंबई की तरफ नहीं मुद सकती | आज हिंदुस्तान की शिक्षा की रेल को अंग्रेजी की पटरी पर दौड़ाया जा रहा है | यह रेल कहाँ जाएगी ?
यह रेल गंगा के घाट पर या कालिंदी के कूल पर अयोध्या की गलियों में हजार साल की यात्रा के बाद भी कभी नहीं आएगी | यह जाएगी और सीधी जाएगी टेम्स के किनारे या ट्राफलगार स्क्वेयर या बंकिघम के ताजमहल के पास! क्योंकि ? वह अंग्रेजी की पटरी पर दौड़ रही है | याद रखिये, भाषा जितनी अछि सेविका है, वह उतनी ही कठोर स्वामिनी भी है |
जब आप विदेशी भाषा के साथ इश्क फरमाते हैं तो वह उसकी पूरी कीमत वसूलती है | वह अपने आदर्श, अपने मूल्य आप पर थोपने लगती है | यह काम धीरे – धीरे होता है और चुपके – चुपके होता है | सौन्दर्य के उपमान बदलने लगते है, दुनिया को देखने की दृष्टि बदल जाती है | आदर्श और मूल्य बदल जाते है | आदर्श और मूल्य बदलें और तार्किक ढंग से बदलें तो मुझे कुछ आपत्ति नहीं है | विदेशी भाषा कुछ बेहतर मूल्य भी हमें दे सकती है, लेकिन आपत्ति तो तब होती है जबकि एक खंडित चिंतन का, एक दोमुहे व्यक्तित्व का निर्माण
होने लगता है | आप रहते तो हैं भारतीय परिवेश में और बौधिक रूप से समर्पित होते है, अंग्रेजी परिवेश के प्रति ! ऐसा व्यक्तित्व सृजनशील नहीं बन पाता | उदाहरण के लिए यूरोप का आदमी बादलों को देखकर प्रायः प्रसन्न नहीं होता | पहले से ही वे ठंढे देश हैं | फिर बादल आ जाएँ, आसमान कुछ- कुछ गहराने लगे तो मातम सा छा जाता है |
इसके विपरीत भारत में ज्यों ही बादल मंडराए कि मन- मयूर नाचने लगता है | मेघदूत की रचना होती है | हमारा देश सूरज का देश है, धुप का देश है | यूरोप धुप के लिए तरसता है और हम बादलों के लिए ! अब बताईये अंग्रेजी में कविता लिखनेवाला हिन्दुस्तानी क्या करेगा ? अगर वह बादलों की तारीफ करेगा तो उसकी कविता उसके पशिमी स्वामियों के गले नहीं उतरेगी और अगर वह कड़ाके की धुप पर गीत लिखेगा तो घटाओं पर झुम्नेवाला उसका दिल उसका साथ कहाँ तक देगा ?
भाषा के बदलने से मूल्य भी बदल जाते हैं | हिंदी में बड़े को आप, बरब्रिवालों को तुम और छोटों को तू कहने की सुविधा है, लेकिन अंग्रेजी में संबोधन है यु | पिताजी के लिय, पत्नी के लिए और सबके लिए एक ही चाबुक है | उसी से हाँकिये! हमारे यहाँ देवर, भाभी, जेठ, देवरानी, जेठानी, मासा, मौसी, चाचा, फूफा, भांजा, भतीजा, साला, जीजा सब संबोधनों के लिए निश्चित शब्द होते है | शब्दों से सम्बन्ध निश्चित होते हैं | जब मुझे कहा जाये कि ये आपके साले हैं तो मै तत्काल समझ जाऊंगा कि ये मेरी पत्नी के भाई हैं और जब
ये कहा जाए की ये आपके जीजा हैं तो मै तत्काल समझ जाऊंगा की ये मेरी बहन के पति हैं, लेकिन अंग्रेजी में तो सब घोटाला है | साला और जीजा दोनों के लिए एक ही शब्द है – ब्रदर इन ला |
इसका कारन स्पष्ट है | मानवीय संबंधों की जिन बरिकिओं का महत्व हमारी संस्कृति में हैं, वह पशिम में नहीं है | एस्किमो लोगों की भाषा में बर्फ के लिए लगभग 100 शब्द है, जबकि हमारी भाषा में पांच-सात | बर्फ से हमारा उतना सबका नहीं पड़ता जितना एस्किमो का | ब्रम्हा के लिए, जीव के लिए, जगत के लिए, मोक्ष के लिए एक एक शब्द के लिए हमारे यहाँ जितने भिन्न-भिन्न शब्द है, उतने शब्द साडी यूरोपीय भाषाओँ में कुल मिलकर नहीं हैं |
और सिर्फ शब्द ही नहीं है, शब्दों के पीछे गहरी अनुभूतियाँ हैं | इस प्रकार संस्कृति से भाषा प्रभावित होती है और जैसा की ऊपर कह आये हैं, भाषा से संस्कृति प्रभावित होती है | अपनी भाषा को छोड़कर विदेशी भाषा के पिछलग्गू बनाने के पहले विद्वानों को इन तथ्यों पर विचार करना चाहिए |
– डा. वेदप्रताप वैदिक जी